सदियों से रीत
चली आ रही
है, एक पर्व
के रूप में।
रक्षाबंधन। वह पर्व, वह
त्योंहार जो रक्षक और
रक्षित के परस्पर
संबंधों पर टिका है।
रक्षाबंधन जैसे पावन और
महान पर्व की
तुलना वेलेंटाइन डे
से करें, आप
पाएंगे कि जिसे
हम आधुनिकता कहते
हैं वह अपनी
परंपराओं के साथ कितना
रसातल में पहुंच
गई है।
बात कलाई पर एक सूत्र बांधने तक सीमित नहीं है। हमारे देश, हमारी संस्कृति का हर पर्व, हर उत्सव, हर त्योंहार किसी बड़े उद्देश्य की ओर संकेत करता है। त्योंहारों को हमने कितना समेट दिया है, संकुचित कर दिया है। अक्सर टीवी पर एक विज्ञापन देखता हूं। एक चाॅकलेट का विज्ञापन, जिसमें भारतीय पर्वों के दौरान ख़ुशी के मौकों पर मिठाई के डिब्बे की जगह चाॅकलेट का डिब्बा पकड़ाने की साज़िश का ’शुभारंभ’ किया जा रहा है। कितनी आसानी से हमें हमारी परंपराओं और जड़ों से काटकर पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति से जोड़ा जा रहा है, और हम जुड़ भी रहे हैं।
खैर हमारे पर्व, उत्सव, त्योंहार आजकल एक दिखावा मात्र होते जा रहे हैं। रक्षाबंधन का पर्व भी बाजार ने भुना लिया है। कई विदेशी कंपनियां दौड़ में हैं। पर्व बाजार के उर्वरक हैं। हम सभी माॅल संस्कृति में रंगते चले जा रहे हैं और पर्वाें का असली उद्देश्य पीछे छूटता जा रहा है। ऐसे दौर में कहीं कोई आशा की किरण दिखाई देती है?
हां, आशा की किरण दिखाई देती है, अभी उम्मीदें बाकी हैं।
ये उम्मीदें हमसे ही हैं, हमारे लिए हैं, हमारे भविष्य के लिए हैं। आने वाले बेहतर कल के लिए हैं। हम उम्मीद कर सकते हैं कि जिस क्षेत्र में हम कार्य कर रहे हैं, उसे निष्ठा से करें, उसे अपने मूल्यों के साथ अंजाम दें, उसमें पवित्रता-शुचिता लाएं, उसी पूरी लगन, मेहनत और ईमानदारी से करें। कोई शिक्षा क्षेत्र में है तो शिक्षा को शुचिता के सर्वोत्तम स्थान पर ले जाने का प्रयास करे। कोई चिकित्सा क्षेत्र से है तो सेवा की भावना को चिर बना दे, कोई व्यापार क्षेत्र से है तो पूरी ईमानदारी से ’’सर्वे भवन्तु सुखिनः’’ की भावना से कार्य करे। ये हमारे संस्कार हैं, भारतीय संस्कार। हमारे त्योंहार यही सिखाते हैं।
ये त्योंहार कर्म और भावना के श्रेष्ठ मिश्रित रूप हैं। द्रौपदी ने जितनी प्रबल भावना से कृष्ण को राखी बांधी उसी प्रबल कर्म से उन्होंने उसकी रक्षा की। यह संकल्प का चरम है। संकल्प की आवश्यकता आज भी है।
उसी चरम संकल्प
की। हर त्योंहार हमारे
जीवन में कोई
चरम संकल्प लेकर
आना चाहिए, तभी
उसकी सार्थकता है।
क्या आज यह सार्थकता कहीं दिखाई देती है?

हां, दिखाई देती
है। सार्थकता की
एक उम्मीद दिखाई
देती है। राजनीतिक क्षेत्र में
अपनी भूमिका रखने
वाले यदि राजनीतिक शुचिता,
जीवन मूल्यों, सिद्धांतों और
विचारधारा के लिए संकल्पबद्ध होते
दिखाई दें, तो
उम्मीद बंधती है।
आम आदमी का
सबसे बड़ा रक्षक
आज लोकतंत्र है।
लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि अगर
आमजन को यह
उम्मीद बंधाएं तो
रक्षाबंधन जैसे पर्व सार्थक
होते हैं।
फेसबुक पर हाल ही भाजपा के वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी एक आह्वान करते नजर आए-’’राजनीति मूल्य विहीन होती जा रही है, सत्ता लोलुपता हावी हो गई है। यह हमारे राज्य और देश के लिए शुभ नहीं है। आईये, रक्षाबंधन पर संकल्प लें-राजनीति में सिद्धांत निष्ठा और विचारधारा की रक्षा के लिए।’’
सांस्कृतिक शून्यता की आंधी के इस दौर में अपने संस्कारों, मूल्यों, आदर्शों, पर्वों और संस्कृति को पतित होने से बचाने और सतत उन्नयन के लिए इस तरह के प्रयास मील के पत्थर साबित होंगे।
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