Thursday 22 August 2013

...और उतार फेंका काला कोट

भारतीय राजनीति में काले कोट वालों का दबदबा रहा है। पंडित जवाहर लाल नेहरूवल्लभ भाई पटेल, डाॅ भीमराव अम्बेडकर... लम्बी फेहरिस्त है। देश  की संविधान सभा में काले कोट वाले राजनीतिज्ञों की कमी नहीं थी। उनका अपना राष्ट्रवाद था। इन काले कोट वाले राजनीतिज्ञों पर संविधान को समझनेसंशोधित करते और नए विधान बनाने की जिम्मेदारी थी। इसलिए वकील राजनीतिज्ञों का दबदबा था हमारी संसद में। उस समय जैसे वकालत पेशा नहीं बल्कि राजनीति में सक्रिय होने की शर्त थी। लेकिन राष्ट्रवाद काले कोट का मोहताज नहीं था यह साबित किया 1975 के आपातकाल के दौरान युवा नेता श्री घनश्याम तिवाड़ी ने। राजस्थान में भाजपा के वरिष्ठ नेता और शिक्षा मंत्री रहे श्री तिवाड़ी के जीवन में उस दौर में एक परिवर्तन गया।

Ghanshyam Tiwari Addressing in Public Get Together


आपातकाल में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नीतियों का विरोध करने वालों में सीकर के युवा नेता घनश्याम तिवाड़ी भी शामिल थे। 25 की उम्र में विवाह हो चुका था। पत्नी पुष्पा देवी के गर्भ में छह माह का शिशु  था। ऐसे में एक पिता पर परिवार और पत्नी की पूरी जिम्मेदारी थी। उस समय वकालत की वकत थी। देश को परिवर्तन की जरूरत थी। घनश्याम तिवाड़ी जैसे युवा अपना सब कुछ झौंक कर आपातकाल के विरोध में उतर आए थे। राष्ट्रीय नेताओं ने जहां काला कोट पहन कर राजनीति में अपनी जड़ें जमा ली थी, वहीं घनश्याम तिवाड़ी ने वकालत का काला कोट उतार फेंका और निजी पारिवारिक जीवन की परवाह किए बिना  दृढ़ता से विरोध में खड़े हो गए।इस विरोध की कीमत भी चुकानी पड़ी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में डाल दिया गया। इतनी यातनाएं दी गईं कि लोकनायक जयप्रकाश  नारायण और मीसा की जेल में बंद कैदी देश  भर में दो दिन अनशन पर बैठ गए।


संघर्ष और आंदोलन उन्हें विरासत में मिला था। 1948 में जब संघ पर पहला प्रतिबंध लगा तो उनके ताऊजी श्री पृथ्वीराज तिवाड़ी सहित तिवाड़ी परिवार के पांच लोग जेल गए। इमरजेंसी के दौरान फिर संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस बार तिवाड़ी परिवार की ओर से जेल में जाने वाले 7 लोगों में घनश्याम तिवाड़ी भी शामिल थे।

True Political Leader Always Interest in Farmers



आज, राजनीति सांस्कृतिक शून्यता के दौर से गुजर रही है और सत्ता पाने के लिए लोग किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं, ऐसे में प्रदेश  के कद्दावर नेता श्री घनश्याम तिवाड़ी ने अपने बच्चों को सत्तालोलुप नहीं बनाया। आज भी वे राजनीतिक शुचिता के लिए संघर्षरत हैं। उनके दोनो पुत्र अखिलेश  और आशीष समाज और संस्कृति का  परिशोधन कर युवा समाज को नई दिशा  देने में संलग्न हैं। ज्येष्ठ पुत्र अखिलेश  तिवाड़ी ’’पुष्पा देवी संस्थापन-नवजागृति हेतु’’ के माध्यम से समाज को वैदिक संस्कारों से जुड़ने की प्रेरणा दे रहे हैं तो छोटे पुत्र आशीष  तिवाड़ी कृषि और पशुपालन के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य कर युवा किसान को वैज्ञानिक तकनीक गौ-संरक्षण की राह दिखा रहे हैं।

Friday 2 August 2013

बात सिर्फ एक पुल की नहीं थी...

पुल जोड़ने का काम करते हैं। एक किनारे से दूसरे किनारे को। नेता का भी यही काम होता है। वह जनता को जोड़ता है, लोकतंत्र से, न्याय से, विधान से, सुविधाओं से, उन्नत जीवन से। राजनीति में आकर जनसेवा करना आसान कार्य नहीं। एक की सुविधा दूसरे की दुविधा हो सकती है। राजनीति में अधिकांश लोगों का लाभ ही असल मुद्दा होता है। लेकिन कुछ नेता होते हैं, जो अधिकांश के बजाय पूर्णांश चाहते हैं। ’सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना से भरे होते हैं। वे उन कार्यों को प्राथमिकता से लेते हैं जिससे सभी का भला हो।

बात करते हैं सांगानेर की। जयपुर शहर के दक्षिणी छोर पर बसा एक सदियों पुराना गांव। इस गांव में हस्तनिर्मित कागज उद्योग और कपड़े पर लकड़ी के ब्लाॅक से की जाने वाली छपाई विश्व प्रसिद्ध है। गांव में सांगा जी का पुराना मंदिर और जैन मंदिर अपनी ऐतिहासिकता और शिल्प के कारण जाने जाते हैं। जयपुर बढ़ा तो यह गांव उपनगर बन गया। आबादी भी तेजी से बढ़ी। जयपुर का व्यस्ततम मार्ग टोंक रोड़ सांगानेर के पूर्वी किनारे से सटकर था। यह मार्ग आम सांगानेरवासियों को जयपुर से जोड़ता है। ब्लाॅक प्रिंटिंग हो या फिर हैंडमेड पेपर, या फिर यहां फैले हजारों छोड़े बड़े उद्योग, या बात करें नौकरीपेशा लोगों की जो सांगानेर से जयपुर शहर जाने के लिए टोंक होकर निकलते थे, प्रायः एक मुसीबत से रोजाना उन्हें दो चार होना पड़ता था।

leader of BJP


इस मुसीबत का कारण सांगानेर और टोंक रोड के बीच से निकल रहा अमानीशाह नाला और उस पर बना संकड़ा पुल था। समय के साथ साथ बढ़ी आबादी और यातायात के दबाव के कारण कांग्रेसी मुख्यमंत्री श्री शिवचरण माथुर द्वारा बनवाया गया यह पुल नाकाफी साबित होने लगा। पुल के दोना ओर जाम लग जाता। घंटों वाहन फंसे रहते। दूर तक कतारें लग जाती। मंडियों में पहुंचने वाला माल अटक जाता, स्कूल आने जाने वाले बच्चे, नौकरी पर जाने वाले लोग, व्यापारी, किसान सभी त्रस्त। यह एक ऐसी समस्या थी जिससे हर सांगानेरवासी को दो-चार होना ही था। कभी कभार दुर्घनाएं भी हो जाती। तू-तू, मैं-मैं हो जाती। हर किसी को निकलने की जल्दी। समस्या गंभीर थी। सुबह-सुबह नहा धोकर अगर आप अपने काम से निकल रहे हैं और कुछ मीटर की पुलिया के जाम में फंस जाएं तो आपका सारा दिन खराब। 

सांगानेर विधायक श्री घनश्याम तिवाड़ी ने बरसों की इस समस्या को हल करने की ठान ली। पुलिया का सर्वे कराया। काफी पुरानी होने के कारण पुलिया जर्जर हो गई थी। उस पर नए सिरे से काम करने की जरूरत थी। पुलिया को मजबूत और चैड़ा कराने का फैसला लिया गया। 3 सितम्बर 2006 को सांगा सेतु विस्तार का शिलान्यास हुआ। लगभग डेढ़ साल में जनता के लिए 130 मीटर लम्बी और 10 मीटर चैड़ी सड़क जनता के लिए खोल दी गई। वाहनों के लिए पुलिया के विस्तार के साथ पैदल चलने वालों का भी ध्यान रखा गया। पुलिया पर ढाई मीटर का फुटपाथ बनाया गया और साढे सात मीटर चैड़ी सड़क।

Ghanshyam Tiwari  talking about Growth in Rajasthan


सांगानेर की जनता को जाम से मुक्ति मिली। कभी कभार पुरानी बातों को याद कर एक मुस्कान होठों पर बरबस आ जाती है। कभी यह मुस्कान बिना रूके किसी व्यपारी का माल ठीक समय पर गोदाम में पहुंच जाने पर आती है और कभी उन विरोधियों पर जिन्हें इतनी बड़ी उपलब्धि दिखाई नहीं देती और सड़क का एक गड्ढा नजर आ जाता है।

गड्ढे वाली घटना का जिक्र करना भी यहां लाजिमी होगा। हुआ यह कि 25 अप्रैल 2008 को सांगा सेतु का भव्य शुभारंभ हुआ। एक भाजपा नेता ने जनता की इतनी बड़ी और पुरानी समस्या सुलझाई थी, विरोधियों को यह कैसे सहन होता। वे भीतर ही भीतर कसमसाते रहे। आखिर दूसरे ही दिन उन्हें मौका मिल गया। दरअसल पुलिया के पचास फीट दूर पीएचईडी की दो लाईनें जा रही थी। इनमें से छोटी लाईन के ज्वाइंट में पानी लीकेज हो गया और नवनिर्मित सड़क पर गड्ढा हो गया। बस, फिर क्या था। स्थानीय विपक्षी नेता इकट्ठे हो गए और करने लगे नारेबाजी। रोड जाम कर दिया। अरे भाई, जाम से मुक्ति दिलाने के लिए तो पुल बनाया गया, और आप फिर जाम लगा रहे हैं। लेकिन विरोधियों को सिर्फ विरोध करने से मतलब होता है। कुछ लोग नहीं चाहते कि अच्छे लोग जनता से गहराई से जुड़ें, दिलों पर राज करें, इसलिए उन्होंने विरोध का छोटा सा मौका भी नहीं जाने दिया, क्योंकि बात सिर्फ एक पुल की नहीं थी, बात थी एक नेता के बढ़ते प्रभाव की।


चलिए, बातों का सिलसिला चलता रहेगा। खुश रहिए, खुशहाल रहिए। प्रणाम। 

बेटियों के लिए एक अहम फैसला

सरकार के संदर्भ एक बात साफ तौर पर कही जा सकती है। सरकार का कोई काम पूरी तरह ना तो सही होता है और ना गलत। सरकार जो भी फैसला लेती है, उसका स्वागत भी होता है और विरोध भी। लेकिन कभी कभी कुछ फैसले ऐसे होते हैं, जिनपर विपक्ष को भी नाज़ होता है, धुर विरोधी भी नतमस्तक हो जाते हैं। राजस्थान की राजनीति में ऐसे कई अवसर आए जब सरकार के किसी मंत्री ने कोई फैसला लिया और सबने एक स्वर में उस फैसले की सराहना की-

बात ज्यादा पुरानी नहीं है। राजस्थान में 2003 से 2008 तक भाजपा सरकार सत्तासीन रही। शिक्षा मंत्री थे श्री घनश्याम तिवाड़ी। कड़े फैसले लेने और उन पर टिके रहने के लिए तिवाड़ी शुरू से ही प्रख्यात रहे। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने कई ऐसे निर्णय लिए जो बाद की सरकारों के लिए बैंच मार्क बन गए।

Political Leader Speech


कहानी कुछ यूं शुरू होती है। राजस्थान की अस्सी प्रतिशत आबादी गांवों में निवास करती है। गांवों के परे सुदूर इलाकों में छोटी-छोटी ढाणियां, पालें और बस्तियां बिखरी पड़ी हैं। बरसों से राजस्थान को शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ा हुआ राज्य कहा जाता था। श्री तिवाड़ी जी को एक ऐसे राज्य के शिक्षा मंत्री पद की कमान संभलाई गई जो शिक्षा के क्षेत्र में देश के 28 राज्यों में 24 वें पायदान पर गिना जाता था।

साठ प्रतिशत से ज्यादा रेतीला भूभाग, लाखों गांव, लाखों-लाख ढाणियां बस्तियां। शहरों में शिक्षा का स्तर ठीक-ठाक था, लेकिन गांवों की हालत खराब थी। गांवों में पांचवीं तक के स्कूल थे। इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके भारत की ग्रामीण जनता भी पढ़ाई का मोल समझती थी। इसलिए बच्चों में गांव की स्कूल में भेजा जाता। लेकिन पांचवी के बाद स्थितियां अलग हो जाती। आठवीं तक के स्कूल के लिए बच्चों को दूसरे गांव की राह पकड़नी होती। शहरों के एसी कमरों में बैठकर आप और हम बहुत बड़ी बातें कर सकते हैं, भारत को सबसे तेज तरक्की करता देश बना सकते हैं लेकिन फील्ड में? फील्ड में उन्हीें लोगों को परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ता है जो उस क्षेत्र में रहते हैं। ग्रामीणों ने लड़कों को तो पांचवीं के बाद दूसरे गांव की पाठशाला में भेजना शुरू किया लेकिन बेटियों को कहा-’बस, बहुत हो गई पढ़ाई, घर बैठो, चूल्हा चैका करो, भाईयों की सेवा करो।’ बेटियों के सपने छठी से पहले ही दम तोड़ देते थे। 

Ghanshyam Tiwari  nourishing the future of india


वे बर्तन मांझते हुए अपने भाईयों को दूसरे गांव में पढ़ने जाते देखती तो उनका जी जलता। करती भी क्या। वास्तव में एक बच्ची के लिए दूसरे गांव जाकर पढ़ना कितना मुश्किल था वे जानती थी। उसने लड़कों को जीपों के पायदान पर लटकते, बसों की छतों पर चढ़कर स्कूल जाते देखा था, वे तो पैदल भी भाग जाते। वे जा सकते थे, क्योंकि उन्हें घर के काम के लिए कोई नहीं कहता था, पर बच्चियां क्या करती। उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता था।

आज बालिकाओं को सरकार साईकिल भेंट कर बाकी सभी समस्याओं से पल्ला झाड़ लेती है, लेकिन सोचिए, आने जाने का साधन उपलब्ध करा देने से समस्याएं खत्म हो जाती हैं? नहीं। प्यासा पैदल कुएं तक जाए या साइकिल पर बैठकर, उसकी प्यास तो कुए तक जाकर ही खत्म होती है। घनश्याम तिवाड़ी कुएं को ही प्यासे तक ले आए। वे बालिकाओं की समस्याओं से अवगत थे। ग्राम्य पृष्ठभूमि में पढ़े लिखे व्यक्ति के अपने अनुभव होते हैं। उन्होंने आदेश जारी किया। प्रदेश के समस्त कन्या प्राथमिक विद्यालय आठवीं तक क्रमोन्नत कर दिए जाएं। कुआ प्यासे तक पहुंच गया। गांवों की बालिकाएं अपने ही गांवों में इठलाते हुए स्कूल जाने लगी। बात यहीं नहीं रूकी। एक और अहम फैसला लिया गया। एक आदेश में 37000 प्राथमिक विद्यालयों को उच्च प्राथमिक विद्यालय में तब्दील कर दिया गया। यह किसी चमत्कार से कम नहीं था।

सोचिए, फीडबैक क्या रहा होगा? किसी गांव-ढाणी-बस्ती की बिंदू, चंपा, पिंकी, निशू, ऋतु, पायल, सुमन के होठों पर एक प्यारी सी मुस्कान और आंखों में ढेरों सपने।


बातें और भी हैं। करते रहेंगे। आपको बताते रहेंगे कि एक मंत्री अपनी इच्छा शक्ति से क्या कुछ कर सकता है।