Monday 16 September 2013

ज्ञानार्थ प्रवेश -सेवार्थ प्रस्थान

आपने किसी पाठशाला के लोहे के बड़े दरवाजों के दोनो ओर के खंभों पर कुछ लिखा देखा होगा। बायें खंभे पर प्रायः लिखा होता है ज्ञानार्थ प्रवेश, इसी तरह दायें खंभे पर लिखा होता है सेवार्थ प्रस्थान।जीवन का महत्वपूर्ण आरंभिक जीवन हमने पाठशाला  में बिताया, रोजाना इन दोनो खंभों पर नजर डाली, पढ़ा। लेकिन इसका मर्म जीवन भर नहीं समझ पाए।ज्ञान के लिए प्रवेश  और सेवा के लिए प्रस्थान। बहुत गहरी बात है। जिन्होंने इन दो छोटे वाक्यों को स्कूल के खंभों पर से उतार कर अपने मानस पटल पर अंकित कर लिया उन्होंने केवल अपना जीवन सार्थक किया, बल्कि हजारों-लाखों लोगों की उम्मीद भी बने।

Ghanshyam Tiwari With Children


लेकिन आजकल हम अपने बच्चों को अंग्रेजी के लिए स्कूलों में दाखिला करा रहे हैं और बेहतर पैकेज की उम्मीदों तले प्रस्थान। वास्तव में आज ज्ञानार्थ प्रवेश  और सेवार्थ प्रस्थान की भावना का लोप हो गया है। जिन लोगों ने ज्ञान और सेवा के महत्व को समझ लिए वे इसे हर क्षेत्र में अपना कर सिर्फ एक ईमानदार
जीवन जी रहे हैं, वरन लोककल्याण की भावना से एक आकाशदीप का काम भी कर रहे हैं। वह  आकाशदीप  जो समूचे संसार को रास्ता दिखाने का कार्य करता है। स्कूल समय से ही छात्र हित, समाज हित और देश  हित के बारे में सोचने वाले घनश्याम  तिवाड़ी ने राजनीति में आकर यह पाठ कभी नहीं भूला। जिस ज्ञान के लिए उन्होंने स्कूल में प्रवेष लिया था, वह दरअसल जनसेवा ही थी। उन्होंने एक बार जो सेवार्थ प्रस्थान किया तो आज तक वे इसे धर्म की तरह निभा रहे हैं।सेवा में संकीर्णत नहीं होनी चाहिए।

घनश्यामतिवाड़ी ने यह बात चरितार्थ कर दिखाई। राजनीति तो विषय ही संकीर्णता का था। राजनीतिक जोड़-तोड़, उठा-पटक, समीकरण के लिए कितनी ही बार गिरना पड़ता है। वे गिरे नहीं। आव्हान किया-’’उठो’’ स्वयं गिरे और गिरने वालों को गिरे रहने देना चाहते हैं। उन्होंने हाल ही राजनीतिक संस्कृति की बात की। जैसा कि राजनीति में होता है। प्रतिनिधि बात करते हैं, वादे करते हैं और भूल जाते हैं। वे भूले नहीं। उनके व्यवहार में ही राजनीतिक संस्कृति रची बसी है। फिर चाहे वे श्री भैरोंसिंह शेखावत
को याद करें, या फिर श्री मोहनलाल सुखाडिया को, उनके लिए राजनीतिक मूल्य सर्वोपरि हैं।

Ghanshyam Tiwari-BJP's Senior Leader


दो उदाहरणों पर गौर कीजिए।राजस्थानके पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सुखाडिया का जन्मदिन था। ये वही सुखाडिया जी थे जिन्होंने 17 साल तक मुख्यमंत्री के तौर पर प्रतिनिधित्व दिया था। जन्मदिन पर विधानसभा में उनकी तस्वीर के समक्ष पुष्पार्पित करने वाले सिर्फ घनश्याम तिवाड़ी थे। उन्हें उस दिन बहुत अफसोस हुआ। कांग्रेसनीत सरकार जोर-शोर  से अपने समस्त प्रचार माध्यमों से आगामी चुनाव के लिए तूफानी अभियान में जुटी थी, वह वाहवाही पाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती थी, श्रेय लेने का इतना उतावलापन, कि वह अपने उस मुख्यमंत्री को ही भुला बैठी जिसने राजस्थान में कांग्रेस को लंबे शासन की ठोस नींव प्रदान की थी। घनश्याम तिवाड़ी को विपक्ष पर भी अफसोस था, क्योंकि विधानसभा में उपस्थिति भर से प्रत्येक सदस्य का दायित्व बन जाता है कि वह राज्य सरकार की उन विभूतियों को याद करे जिन्होंने राजस्थान को वर्तमान स्वरूप प्रदान करने में अपनी भूमिका निभाई है। विपक्ष को उन्हें याद करना चाहिए था। लेकिन विपक्ष ने भी पक्ष की तरह श्री सुखाडिया  को विस्मृत कर दिया।


दूसरा उदाहरण बाबोसा का है। बाबोसा, श्री भैरोंसिंह शेखावत जब वे संघ नेता थे तो उन्हें कहा गया कि वे टिकट के लिए राजमहल जाकर महारानी गायत्री देवी से मिल लें। लेकिन शेखावत स्वाभिमानी थे। उन्हें यह बात गवारा नहीं थी कि जननेता बनने के लिए उन्हें राजदरबार में हाजिरी लगानी पड़े, टिकट के लिए।
वे नहीं गए। तिवारी ने बाबोसा के इस वृत्तांत को याद करते हुए अपने फेसबुक पेज पर कहा कि बाबोसा के प्रति सम्मान और भी बढ़ गया। स्वाभिमान शून्य राजनीति किसी का हित नहीं करती, पार्टी का, व्यक्ति का, राज्य या देश का। इस तरह की राजनीति कायरता, स्वार्थ और भ्रष्ट आचरण को बढ़ावा देती है।घनश्याम  तिवाड़ी राजनीतिक सांस्कृतिक समन्वय, राजनीतिक संस्कृति की पुनर्स्थापना  और राजनीतिक शुचिता का आव्हान कर रहे हैं। वे इस वक्त राजनीतिक संत की भूमिका में हैं। राजनीति की चाकी में उन्होंने ज्ञान और सेवा को महीन पीस लिया है। उन्होंने यह साबित किया है कि सेवार्थ प्रस्थान करने से पूर्व ज्ञान से लबालब होना जरूरी है।

Tuesday 10 September 2013

संकल्प, विचारधारा की रक्षा का


सदियों से रीत चली रही है, एक पर्व के रूप में। रक्षाबंधन। वह पर्व, वह त्योंहार जो रक्षक और रक्षित के परस्पर संबंधों पर टिका है। रक्षाबंधन जैसे पावन और महान पर्व की तुलना वेलेंटाइन डे से करें, आप पाएंगे कि जिसे हम आधुनिकता कहते हैं वह अपनी परंपराओं के साथ कितना रसातल में पहुंच गई है।

बात कलाई पर एक सूत्र बांधने तक सीमित नहीं है। हमारे देश, हमारी संस्कृति का हर पर्व, हर उत्सव, हर त्योंहार किसी बड़े उद्देश्य की ओर संकेत करता है। त्योंहारों को हमने कितना समेट दिया है, संकुचित कर दिया है। अक्सर टीवी पर एक विज्ञापन देखता हूं। एक चाॅकलेट का विज्ञापन, जिसमें भारतीय पर्वों के दौरान ख़ुशी के मौकों पर मिठाई के डिब्बे की जगह चाॅकलेट का डिब्बा पकड़ाने की साज़िश काशुभारंभकिया जा रहा है। कितनी आसानी से हमें हमारी परंपराओं और जड़ों से काटकर पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति से जोड़ा जा रहा है, और हम जुड़ भी रहे हैं।

 

खैर हमारे पर्व, उत्सव, त्योंहार आजकल एक दिखावा मात्र होते जा रहे हैं। रक्षाबंधन का पर्व भी बाजार ने भुना लिया है। कई विदेशी कंपनियां दौड़ में हैं। पर्व बाजार के उर्वरक हैं। हम सभी माॅल संस्कृति में रंगते चले जा रहे हैं और पर्वाें का असली उद्देश्य पीछे छूटता जा रहा है। ऐसे दौर में कहीं कोई आशा की किरण दिखाई देती है?

हां, आशा की किरण दिखाई देती है, अभी उम्मीदें बाकी हैं।

ये उम्मीदें हमसे ही हैं, हमारे लिए हैं, हमारे भविष्य के लिए हैं। आने वाले बेहतर कल के लिए हैं। हम उम्मीद कर सकते हैं कि जिस क्षेत्र में हम कार्य कर रहे हैं, उसे निष्ठा से करें, उसे अपने मूल्यों के साथ अंजाम दें, उसमें पवित्रता-शुचिता लाएं, उसी पूरी लगन, मेहनत और ईमानदारी से करें। कोई शिक्षा क्षेत्र में है तो शिक्षा को शुचिता के सर्वोत्तम  स्थान पर ले जाने का प्रयास करे। कोई चिकित्सा क्षेत्र से है तो सेवा की भावना को चिर बना दे, कोई व्यापार क्षेत्र से है तो पूरी ईमानदारी से ’’सर्वे भवन्तु सुखिनः’’ की भावना से कार्य करे। ये हमारे संस्कार हैं, भारतीय संस्कार। हमारे त्योंहार यही सिखाते हैं।

ये त्योंहार कर्म और भावना के श्रेष्ठ मिश्रित रूप हैं। द्रौपदी ने जितनी प्रबल भावना से कृष्ण को राखी बांधी उसी प्रबल कर्म से उन्होंने उसकी रक्षा की। यह संकल्प का चरम है। संकल्प की आवश्यकता आज भी है।
उसी चरम संकल्प की। हर त्योंहार हमारे जीवन में कोई चरम संकल्प लेकर आना चाहिए, तभी उसकी सार्थकता है।

क्या आज यह सार्थकता कहीं दिखाई देती है?



हां, दिखाई देती है। सार्थकता की एक उम्मीद दिखाई देती है। राजनीतिक क्षेत्र में अपनी भूमिका रखने वाले यदि राजनीतिक शुचिता, जीवन मूल्यों, सिद्धांतों और विचारधारा के लिए संकल्पबद्ध होते दिखाई दें, तो उम्मीद बंधती है। आम आदमी का सबसे बड़ा रक्षक आज लोकतंत्र है। लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि अगर आमजन को यह उम्मीद बंधाएं तो रक्षाबंधन जैसे पर्व सार्थक होते हैं।

फेसबुक पर हाल ही भाजपा के वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी एक आह्वान करते नजर आए-’’राजनीति मूल्य विहीन होती जा रही है, सत्ता लोलुपता हावी हो गई है। यह हमारे राज्य और देश के लिए शुभ नहीं है। आईये, रक्षाबंधन पर संकल्प लें-राजनीति में सिद्धांत निष्ठा और विचारधारा की रक्षा के लिए।’’

सांस्कृतिक शून्यता की आंधी के इस दौर में अपने संस्कारों, मूल्यों, आदर्शों, पर्वों और संस्कृति को पतित होने से बचाने और सतत उन्नयन के लिए इस तरह के प्रयास मील के पत्थर साबित होंगे।