सरकार के संदर्भ एक बात साफ तौर पर कही जा सकती है। सरकार का कोई काम
पूरी तरह ना तो सही होता है और ना गलत। सरकार जो भी फैसला लेती है, उसका
स्वागत भी होता है और विरोध भी। लेकिन कभी कभी कुछ फैसले ऐसे होते हैं,
जिनपर विपक्ष को भी नाज़ होता है, धुर विरोधी भी नतमस्तक हो जाते हैं।
राजस्थान की राजनीति में ऐसे कई अवसर आए जब सरकार के किसी मंत्री ने कोई
फैसला लिया और सबने एक स्वर में उस फैसले की सराहना की-
बात ज्यादा पुरानी नहीं है। राजस्थान में 2003 से 2008
तक भाजपा सरकार सत्तासीन रही। शिक्षा मंत्री थे श्री घनश्याम तिवाड़ी।
कड़े फैसले लेने और उन पर टिके रहने के लिए तिवाड़ी शुरू से ही प्रख्यात
रहे। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने कई ऐसे निर्णय लिए जो बाद की सरकारों
के लिए बैंच मार्क बन गए।
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Political Leader Speech |
कहानी कुछ यूं शुरू होती है। राजस्थान की अस्सी
प्रतिशत आबादी गांवों में निवास करती है। गांवों के परे सुदूर इलाकों में
छोटी-छोटी ढाणियां, पालें और बस्तियां बिखरी पड़ी हैं। बरसों से राजस्थान
को शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ा हुआ राज्य कहा जाता था। श्री तिवाड़ी जी
को एक ऐसे राज्य के शिक्षा मंत्री पद की कमान संभलाई गई जो शिक्षा के
क्षेत्र में देश के 28 राज्यों में 24 वें पायदान पर गिना जाता था।
साठ प्रतिशत से ज्यादा रेतीला भूभाग, लाखों गांव,
लाखों-लाख ढाणियां बस्तियां। शहरों में शिक्षा का स्तर ठीक-ठाक था, लेकिन
गांवों की हालत खराब थी। गांवों में पांचवीं तक के स्कूल थे। इक्कीसवीं सदी
में प्रवेश कर चुके भारत की ग्रामीण जनता भी पढ़ाई का मोल समझती थी। इसलिए
बच्चों में गांव की स्कूल में भेजा जाता। लेकिन पांचवी के बाद स्थितियां
अलग हो जाती। आठवीं तक के स्कूल के लिए बच्चों को दूसरे गांव की राह पकड़नी
होती। शहरों के एसी कमरों में बैठकर आप और हम बहुत बड़ी बातें कर सकते
हैं, भारत को सबसे तेज तरक्की करता देश बना सकते हैं लेकिन फील्ड में?
फील्ड में उन्हीें लोगों को परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ता है जो उस
क्षेत्र में रहते हैं। ग्रामीणों ने लड़कों को तो पांचवीं के बाद दूसरे
गांव की पाठशाला में भेजना शुरू किया लेकिन बेटियों को कहा-’बस, बहुत हो गई
पढ़ाई, घर बैठो, चूल्हा चैका करो, भाईयों की सेवा करो।’ बेटियों के सपने
छठी से पहले ही दम तोड़ देते थे।
Ghanshyam Tiwari nourishing the future of india |
वे बर्तन मांझते हुए अपने भाईयों को दूसरे गांव में पढ़ने जाते देखती
तो उनका जी जलता। करती भी क्या। वास्तव में एक बच्ची के लिए दूसरे गांव
जाकर पढ़ना कितना मुश्किल था वे जानती थी। उसने लड़कों को जीपों के पायदान
पर लटकते, बसों की छतों पर चढ़कर स्कूल जाते देखा था, वे तो पैदल भी भाग
जाते। वे जा सकते थे, क्योंकि उन्हें घर के काम के लिए कोई नहीं कहता था,
पर बच्चियां क्या करती। उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता था।
आज बालिकाओं को सरकार साईकिल भेंट कर बाकी सभी
समस्याओं से पल्ला झाड़ लेती है, लेकिन सोचिए, आने जाने का साधन उपलब्ध करा
देने से समस्याएं खत्म हो जाती हैं? नहीं। प्यासा पैदल कुएं तक जाए या
साइकिल पर बैठकर, उसकी प्यास तो कुए तक जाकर ही खत्म होती है। घनश्याम
तिवाड़ी कुएं को ही प्यासे तक ले आए। वे बालिकाओं की समस्याओं से अवगत थे।
ग्राम्य पृष्ठभूमि में पढ़े लिखे व्यक्ति के अपने अनुभव होते हैं। उन्होंने
आदेश जारी किया। प्रदेश के समस्त कन्या प्राथमिक विद्यालय आठवीं तक
क्रमोन्नत कर दिए जाएं। कुआ प्यासे तक पहुंच गया। गांवों की बालिकाएं अपने
ही गांवों में इठलाते हुए स्कूल जाने लगी। बात यहीं नहीं रूकी। एक और अहम
फैसला लिया गया। एक आदेश में 37000 प्राथमिक विद्यालयों को उच्च प्राथमिक
विद्यालय में तब्दील कर दिया गया। यह किसी चमत्कार से कम नहीं था।
सोचिए, फीडबैक क्या रहा होगा? किसी गांव-ढाणी-बस्ती की
बिंदू, चंपा, पिंकी, निशू, ऋतु, पायल, सुमन के होठों पर एक प्यारी सी
मुस्कान और आंखों में ढेरों सपने।
बातें और भी हैं। करते रहेंगे। आपको बताते रहेंगे कि एक मंत्री अपनी इच्छा शक्ति से क्या कुछ कर सकता है।
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